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साखी
पतिब्रता का अंग - मेरा साईँ एक तू दूजा और न कोय
मेरा साईँ एक तू दूजा और न कोयदूजा साईँ तौ करौं जो कुल दूजो होय
कबीर
साखी
प्रेम का अंग - ये तत्त वो तत्त एक है एक प्रान दुइ गात
ये तत्त वो तत्त एक है एक प्रान दुइ गातअपने जय से जानिये मेरे जिय की बात
कबीर
साखी
सेवक और दास का अंग - 'कबीर' ख़ालिक़ जागिया और न जागै कोय
'कबीर' ख़ालिक़ जागिया और न जागै कोयकै जागै बिषया भरा कै दास बंदगी जोय
कबीर
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साखी
प्रेम का अंग - 'कबीर' हम गुरु रस पिया बाक़ी रही न छाक
'कबीर' हम गुरु रस पिया बाक़ी रही न छाकपाका कलस कुम्हार का बहुरि ते चढ़सी चाक
कबीर
पद
तरवर एक मूल बिन ठाढ़ा बिन फूले फल लागे
चढ़ तरवर दो पंछी बोले एक गुरू एक चेलाचेला रहा सो रस चुन खाया गुरू निरंतर खेला
कबीर
साखी
सेवक और दास का अंग - 'कबीर' गुरू सब को चहैं गुरू को चहै न कोय
कबीर गुरू सब को चहैं, गुरू को चहै न कोयजब लग आस सरीर की तब लग दास न होय
कबीर
दोहरा
एक अकेला साइयाँ दुइ दुइ कहौ न कोय
एक अकेला साइयाँ दुइ दुइ कहौ न कोयबास फूल है एक ही कहु क्यूँ दूजा होय
अब्दुल क़ुद्दूस गंगोही
साखी
पतिब्रता का अंग - पतिबरता बिभिचारिनी एक मंदिर में बास
पतिबरता बिभिचारिनी एक मंदिर में बासवह रँग-राती पीव के ये घर घर फिरै उदास
कबीर
पद
या तरिवर में एक पखेरू भोग सरस बह डोलै रे
या तरिवर में एक पखेरू भोग सरस बह डोलै रेबाकी संघ लखै नहि कोई कौन भाव सों बोलै रे
कबीर
साखी
चितावनी का अंग - एक सीस का मानवा करता बहुतक हीस
एक सीस का मानवा करता बहुतक हीसलंकापति रावन गया बीस भुजा दस सीस
कबीर
पद
प्रथम एक जो आपे आप निराकार निर्गुन निर्जाप
प्रथम एक जो आपे आप निराकार निर्गुन निर्जापनहिं तव आदि अंत मध-तारा नहि तव अंध धुंध उजियारा
कबीर
साखी
पतिब्रता का अंग - सब आये उस एक में डार पात फल फूल
सब आये उस एक में डार पात फल फूलअब कहो पाछे क्या रहा गहि पकड़ा जब मूल
कबीर
ग़ज़ल
तिरी एक तिरछी निगाह ने मिरे दिल से पर्द: उठा दियाजो करिश्म: पेश-ए-नज़र न था मुझे एक पल में दिखा दिया
अज़ीज़ सफ़ीपुरी
पद
कहै 'कबीर' विचारि कै जा कै बर्न न गाँव
कहै 'कबीर' विचारि कै जा कै बर्न न गाँवनिराकार और निर्गुना है पूरन सब ठाँव